इरशाद न कर


 

         जो चला वक्त  उसी वक्त को तूँ याद न कर।

बीती पलकों में यूं ही जिन्दगी बरबाद न कर।

 भूल जा भुले हुए रिश्तों को जो छोड़ चले।

उनकी यादों की ज़हन में बडी तादाद न कर।

 ना मिलेगा तुज़े ये बात कहेगा सब को।

अपने दर्दों की परायों से तुं फरियाद न कर।

 जो नहिं उसके ख़ज़ाने में तुज़े क्या देगा?

ना दिलासा ही सही उससे युं इमदाद न कर।

 राज़जब कोई गज़ल छेड दे ज़ख़्मों को तेरे।

तुं उसी शेर के शायर को ही इरशाद न कर।

 

 

 

 

 

 
 

 

 

  

4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छी गज़ल , यादो को हवा देती हुई. आपके अलफ़ाज़ बहुत गहरे उतर गए है.. बधाई स्वीकार करे.

    आभार
    विजय
    ———–
    कृपया मेरी नयी कविता ” फूल, चाय और बारिश ” को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

  2. जो नहिं उसके ख़ज़ाने में तुज़े क्या देगा?
    ना दिलासा ही सही उससे युं इमदाद न कर।
    ”राज़”जब कोई गज़ल छेड दे ज़ख़्मों को तेरे।
    तुं उसी शेर के शायर को ही इरशाद न कर।
    बहोत खुब गझल है..अपना ही अंदाजे बयां है..सच बात है..हम जीनके पास नहि उनसे मांग के क्या फायदा..
    अपने झ्ख्मो को छेडने वाले को भी अच्छा जवाब है…
    आप गानते रहीएगा…और फीर रेकार्ड भी करना..सिर्फ वोकल तरन्नुम मे पहले करो, फीर कीसी म्युसिक के साथ फीर अपनी गझल्को कंपोझ कराके…

    जो गीत ह्दयके भीतर अनगाया पडा है..उसे गा लूं
    अवसर यूं ही बीत न जाये…


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