प्रहर


     

 

अंधेरे हैं भागे प्रहर हो चली है।

परिंदों को उसकी ख़बर हो चली है।

 

सुहाना समाँ है हँसी है ये मंज़र।

ये मीठी सुहानी सहर हो चली है।

 

कटी रात के कुछ ख़यालों में अब ये।

जो इठलाती कैसी लहर हो चली है।

 

जो नदिया से मिलने की चाहत है उसकी।

उछलती मचलती नहर हो चली है।

 

सुहानी-सी रंगत को अपनों में बाँधे।

ये तितली जो खोले हुए पर चली है।

 

है क़ुदरत के पहलू में जन्नत की खुशबू।

बिख़र के जगत में असर हो चली है।

 

मेरे बस में हो तो पकडलुं नज़ारे।

चलो राज़ अब तो उमर हो चली है।


3 टिप्पणियाँ

  1. ग़ज़ल अच्छी है बस केवल एक शे’र

    सुहानी-सी रंगत को अपनों में बाँधे।
    ये तितली जो खोले हुए पर चली है।

    बाकी ग़ज़ल से मिल नहीं रहा है पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ ’हो चली है’ आ रहा है पर इसमें नहीं ।


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