श्रेणी पुरालेख: करुण रस
उज़डा शहर
ये शहर अब वों शहर नहीं,
न जाने किसकी नज़र लगी?(2)
यहॉ झिलमिलाते चिराग थे,
यहॉ टिमटिमाते सितारे थे।
यहॉ रोज़ दिन में ईद थी,
यहॉ रात एक दीवाली थी।
अब यहॉ अमास का आसमॉ।…. न जाने किसकी नज़र लगी?(2)
यहॉ ऊंचे मकान थे,
कभी इस में भी इन्सान थे।
यहॉ महेफिलॉ में थी रोशनी,
यहॉ बज़ती थी हर रागिनी।
अब यहॉ है खंडहर के नशॉ।…. न जाने किसकी नज़र लगी?(2)
यहॉ बागों में तो बहार थी।
यहॉ तितलीयॉ भी हज़ार थी।
ये सँवरता था दुल्हन तरहॉ,
ये महकता था गुलशन तरहॉ।
अब यहॉ लगा उज़डा समॉ।…. न ज़ाने किसकी नज़र लगी?(2)
हमारा घर
हमारा घर
मेरा घर, हमारा घर, हम सब का घर।
बडी, मंझली, छोटी और मुन्ने का घर ।
जहाँ हम पले, जहाँ हमने अपनी पहली सांस ली।
जिसमें हमारा वजुद बना।
जिस से हमारे ताने-बाने जुडे हुए थे,
वो हमारा घर।
पर आज….हमारे उसी घर को,
घेर रख़ा है दिमक ने।
दिमक ने अपना जाल खूब फैला रख़ा है,
हमारे उसी घर पर।
लोग कहते हैं “निकाल दो इस घर को”।
पर कैसे? कैसे निकाल सकते हैं हम इसे?
इस से जो हमारी “मा” जुडी है।
उसका इस घर से पच्च्त्तर साल का नाता है।
और फिर वो कमझोर भी तो है।
उस बेचारी को तो पता भी नहीं कि..
दिमक ने घेर रख़ा है उसके घर को।
पर हाँ…!इलाज जारी है, दिमक के फैलते हुए जाल को
रोकने का…।
“ किमोथेरेपी और रेडिएशन ” के ज़रीए।
ताकि बच जाए हमारी “माँ”।
अय धूप की किरन!
अय धूप की किरन!
तू हर सुबह मेरे घर की खिड़की पर दस्तक देती थी.
छोटी-छोटी किवाडों से मेरे घर में चली आया करती थी.
मैं चिलमन लगा देती फिर भी तू चिलमनो से झांक लिया करती.
तेरी रोशनी चुभती थी मेरी आंखों में,मेरे गालों पर,मेरी पेशानी पर,
मैं तुझे छुपाने कि कोशिश करती थी कभी किताबों के पन्नों से तो
कभी पुरानी चद्दरों से.लेकिन…..
ऎ किरन ! तू किसी न किसी तरहां आ ही जाती.ना जाने तेरा मुजसे
ये कैसा नाता था?क्यों मेरे पीछे पड गई है तु?
आज मुझे परदेश जाने का मौका मिला है.मै बहोत खुश हुं.
ऎ किरन ! चल अब तो तेरा पीछा छुटेगा !
दो साल बाद वापस लौटने पर…..
जैसे ही मैने अपने घर का दरवाजा खोला !
मेरा घर मेरा नहीं लगा मुझे,
क्या कमी थी मेरे घर मैं?
क्या गायब था मेरे घर से?…..
अरे हां ! याद आया ! वो किरन नज़र नहीं आती !
बहोत ढुंढा ऊसे,पर कहीं नज़र नहीं आई,वो किरन,
खिड़की से सारी चिलमनें हटा दी मैने,फिर भी वो नहीं आई,
क्या रुठ गई है मुझ से?
घर का दरवाज़ा खोलकर देखा तो,
घर की खिड़की के सामने बहोत बडी ईमारत खडी थी.उसी ने किरन को
रोके रखा था.
आज मैं तरसती हुं, ऊस किरन को, जो मेरे घर में आया करती थी.
कभी चुभती थी मेरी आंखों में..मेरे गालों पर…
आज मेरा घर अधूरा है, ऊसके बिना.ऊसके ऊजाले से मेर घर रोशन था.
पर आज ! वो रोशनी कहां? क्यों कि ….!
वो धूप की किरन नहीं..